01 जुलाई, 2009

25. वाग्भटाचार्य -1

(कोट्टारत्तिल शंकुण्णि विरचित मलयालम ग्रंथ ऐतीह्यमाला का हिंदी रूपांतर - भाग-2)

एक समय मुसलमानों के आक्रमणों और उनके प्रमुखता ग्रहण कर लेने से वैद्यशास्त्र के सभी ग्रंथ उनके अधीन चले गए। ब्राह्मणों के हाथों में कोई भी ग्रंथ बचा न रह जाने से इस शास्त्र के अध्येता और अध्यापक भी निश्शेष हो गए। और कुछ समय बीत जाने पर ब्राह्मणों में वैद्यों का होना भी समाप्त हो गया। हालत इस कदर विषम हो गई कि यदि कोई बीमार पड़ जाए, तो उन्हें मुसलमान वैद्यों के पास जाकर उनसे इलाज पूछने और उनके बताए अनुसार करने की नौबत आ गई। मुसलमानों में वैद्यक शास्त्र के कुछ अत्यंत निपुण लोग भी हो गए। यह ब्राह्मणों के लिए बहुत ही आपत्तिजनक था। तब परदेश के एक स्थान में इकट्ठा होकर सब ब्राह्मणों ने विचार किया कि इस अप्रिय स्थिति से पार पाने के लिए क्या उपाय किया जाना चाहिए। सोच-विचारकर वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि, "मुसलमानों को युद्ध में हराकर उनसे वैद्यशास्त्र के ग्रंथ छीनना उनकी प्रबलता को देखते हुए अब संभव नहीं रह गया है। उनके पास जाकर वैद्यशास्त्र के गुर सीख आना भी संभव नहीं है क्योंकि वे मुसलमानों के अलावा और किसी को वैद्यशास्त्र नहीं सिखाते हैं। इसलिए किसी को मुसलमानों का वेष धारण करके किसी अच्छे मुलमान वैद्य के पास जाकर चुपके से उससे वैद्यशास्त्र सीख आना होगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।“ इस निर्णय पर पहुंचने के बाद वे सब यह विचार करने लगे कि मुसलमानों से वैद्यशास्त्र सीख आने के लिए कौन सर्वाधिक उपयुक्त है। सभी ने एक मत से यही कहा कि, “इसके लिए वाग्भट्ट के जितना बुद्धिशाली और सामर्थ्यशाली व्यक्ति और कोई नहीं है।” तब उसी सभा में बैठे वाग्भटाचार्य बोले, “यदि मुझे आप सबका अनुग्रह और आशीर्वाद प्राप्त हो, तो मैं यह कार्य सिद्ध करके आऊंगा।” उस समय वाग्भटार्च्य की आयु बहुत कम थी, यही बीस-एक वर्ष। उम्र कम होने के बावजूद वे वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि के प्रकांड पंडित थे।

ये ब्राह्मण नदी किनारे स्थित एक पाठशाला में इकट्ठे हुए थे। उसी नदी के दूसरे किनारे पर ही वैद्यशास्त्र का एक पहुंचा हुआ निष्णात, और वैद्यशास्त्र की शिक्षा देने में अति निपुण और अत्यंत धनी मुसलमान रहता था। वाग्भटाचार्य ने तय किया कि मैं इसी से वैद्यशास्त्र सीखूंगा। उसके बाद वाग्भटाचार्य मुसलमानों का लिबास, टोपी आदि का बंदोबस्त करनें में जुट गया। जब यह सब सामग्री इकट्ठी हो गई, एक दिन वाग्भटाचार्य सुबह-सुबह स्नान, नित्यकर्म और नाश्ता करके ब्राह्मण श्रेष्ठों की एक बार फिर वंदना करके वेष बदलकर उधर को निकल पड़े। बाकी ब्राह्मण उनकी कार्यसिद्धि के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने के इरादे से पाठशाला में ही रुक गए।

मुसलमान के वेष में उस मुसलमान वैद्य के पास जाकर वाग्भटाचार्य ने उसकी वंदना की। उस समय वह वैद्य अपने अनेक शिष्यों को पास बैठाकर वैद्यशास्त्र पढ़ा रहा था। वाग्भटाचार्य की वेष-भूष से उस वैद्य ने यही समझा कि यह भी अपनी ही जाति का कोई व्यक्ति है, और कहा, “तुम कहां से आए हो? क्या चाहते हो?”

वाग्भटाचार्य – मैं उत्तर दिशा से कुछ दूर से आया हूं। आपकी ख्याति हमारे इलाके में भी खूब फैली हुई है। वहां सब यही कहते हैं कि आपके जैसे निपुण वैद्य सारी दुनिया में दूसरा कोई नहीं है। इसलिए यही सोचकर यहां आया हूं कि यदि आपके पास से वैद्यशास्त्र की कुछ बातें सीख सका तो उत्तम रहेगा। आपसे अनुरोध है कि आप इसकी सहमति देकर मुझे कृतार्थ करें।

वैद्य – अरे, यह जानकर तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। मैं तुम्हारी योग्यता की परीक्षा लेकर देखूंगा। मैं केवल उन्हें ही पढ़ाता हूं जिनमें इस विषय को ठीक से समझने के लिए आवश्यक बुद्धि-सामर्थ्य हो। यदि तुममें वह क्षमता हो, तो मैं तुम्हें जरूर पढ़ाऊंगा। मंद बुद्धि वाले आलसियों के साथ सिर फोड़ने का धैर्य मुझमें नहीं है। यहां जो भी पढ़ने आता है, उन सबका खर्चा मैं ही उठाता हूं। उन्हें जेब खर्च के लिए भी मैं कुछ देता हूं। यहां का नियम ऐसा ही है। इसलिए पहले तुम भीतर जाकर भोजन करके आओ, बाकी उसके बाद देखेंगे।

वाग्भट्ट – मैं भोजन कर चुका हूं, इसलिए अभी उसकी आवश्यकता नहीं है।

वैद्य – जैसी तुम्हारी इच्छा। मुझे जो कहना था वह मैंने कह दिया। यदि भोजन नहीं करना हो, तो अभी ही तुम्हें पढ़ाकर देख लेता हूं। क्या तुम्हारे पास कोई ग्रंथ-व्रंथ है?

वाग्भट्ट – मेरे पास कोई भी ग्रंथ नहीं है।

यह सुनकर वह वैद्य ही भीतर जाकर एक ग्रंथ लेकर आया और उसी से कुछ पाठ वाग्भट्ट को पढ़ाने लगा। थोड़ी ही देर में वैद्य को पूर्ण संतुष्टि हो गई, इतना ही नहीं वह काफी विस्मित भी हुआ। इतना बुद्धिशाली, पढ़ने में रुचि रखनेवाला और ध्यान देनेवाला छात्र वैद्य ने पहले कभी नहीं देखा था। इसलिए उसने कहा, “तुम बहुत होशियार हो। तुम्हें पढ़ाने में मुझे खुशी होगी। तुम यहीं रह सकते हो। सब खर्चे मैं ही दे दूंगा। तुम्हें एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ेगा। केवल ठीक से पढ़ते रहना होगा।”

वाग्भट्ट – इस नदी के उस पार मेरा एक रिश्तेदार रहता है। मैं उसके घर ही रह लूंगा। आपको खर्चे के लिए भी मुझे कुछ भी नहीं देना होगा। केवल कृपा करके मुझे अच्छी तरह सिखा भर दें।“

वैद्य - वह तो मैं कह ही चुका हूं कि करूंगा। बाकी सब तुम्हारी इच्छा। मुझे जो कहना था, कह दिया।

शाम होने तक पढ़ने के बाद वाग्भटाचार्य घर लौट आए। संध्या वंदन आदि करके रात का भोजन किया और लेटकर सो गए। सुबह होने पर स्नान, जप और भोजन कर लेने के बाद मुसलमान का वेष धारण करके एक बार फिर वे वैद्य के सामने उपस्थित हो गए। पूरा दिन पढ़ लेने के बाद फिर घर लौट आए। इस तरह कई दिन बीत जाने पर उस गुरु को अपने इस कुशाग्रबुद्धि शिष्य को पढ़ाने में असामान्य रूप से रुचि, संतोष और उत्साह होने लगा। इसलिए एक शाम जब वाग्भटाचार्य उस दिन की पढ़ाई बंद करने का उपक्रम कर रहे थे, उनके गुरु ने कहा, “यदि तुम्हें रुचि हो, तो रात के भोजन के बाद भी मैं तुम्हें पढ़ाने के लिए तैयार हूं। जैसी तुम्हारी इच्छा होगी, वैसा करेंगे।” वाग्भटाचार्य भी यही सोच रहे थे कि जितनी जल्दी हो सके अपने रहस्य का उद्घाटन किए बिना सब कुछ सीखकर वहां से निकला जाना चाहिए। इसलिए गुरु का यह वचन उन्हें अत्यंत मनोनुकूल लगा और उन्होंने कहा, “तब फिर मैं भोजन करके अभी आ जाता हूं। जो कुछ भी सीखने को है, उसे जल्द से जल्द सीखकर स्वदेश लौट जाना ही मेरा भी उद्देश्य है। घर के लोग मुझे अपने समीप न पाकर बहुत चिंतित हो रहे हैं।“ यह कहकर वाग्भटाचार्य जल्दी घर जाकर भोजन कर आए। तब तक वैद्य ने भी खाना खा लिया था और वह अपने शिष्य का इंतजार कर रहा था। रात की पढ़ाई वैद्य के शयनकक्ष में होना था। उसका घर एक सात मंजिला महल जैसा ही था। रात के वक्त वह गुरु इस एक शिष्य के अलावा किसी और को नहीं पढ़ाता था।

एक बार पढ़ाई शुरू होने पर वैद्य पढ़ाता ही गया, पढ़ाता ही गया यही सोचकर कि जब तक शिष्य न कहे तब तक पढ़ाऊंगा, और शिष्य भी यही सोचता रहा कि जब तक गुरु चाहें पढ़ूंगा। इस तरह दोनों दिन रात बहुत देर तक पढ़ते-पढ़ाते रहे। कभी-कभी तो रात की पढ़ाई सुबह मुर्गी के बांग देने पर रुकती थी। पढ़ने-पढ़ाने में दोनों को जो उत्साह और संतोष हो रहा था, उसके चलते उन्हें समय के बीतने का अंदाजा ही नहीं रहता था। इस तरह कुछ समय बीत जाने पर वैद्यशास्त्र की लगभग सब ग्रंथ वाग्भटाचार्य ने पढ़ लिए। फिर भी गुरु को तृप्ति नहीं हुई। जब सब ग्रंथ सीख लिए जा चुके थे, गुरु मौखिक रूप से विभिन्न चिकत्सकीय प्रयोगों के बारे में अपने शिष्य को बताने लगा। वाग्भटाचार्य ने भी उन सब बातों को ध्यानपूर्वक ग्रहण कर लिया। रात के समय गुरु पलंग पर लेटे-लेटे एक-एक बात बताते जाते थे और शिष्य फर्श पर बैठकर उन सबको सीखता जाता था। यही पढ़ने-पढ़ाने की उनकी रीति थी।


(... जारी।)

6 Comments:

विवेक सिंह said...

इसको पढ़ने में वाकई बहुत रुचिकर लगा ! धन्यवाद !

राज भाटिय़ा said...

आप की इस कथा ने को लेखनी ने बाध लिया है, बहुत सुंदर अगली कडी का इंतजार

दिनेशराय द्विवेदी said...

वाग्भट्ट के बारे में जान कर अच्छा लगा। मुझे उन के चिकित्सकीय ग्रंथ पड़ने का सौभाग्य मिला था।

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

तो यह वास्तविक घटना है?

Smart Indian said...

अगली कड़ी का उत्सुकता से इंतज़ार है.

singleherbs said...

आचार्य वाग्भट द्वारा रचित अष्टांगहृदय एवं अष्टांगसंग्रह पहली से तीसरी शताब्दी के बीच के ग्रन्थ है, और ये आयुर्वेद के प्रमुख संहिताऒ मे आते है , अब प्रश्न यह उठता है कि मुसलमान तो भारत मे लगभग १०वी. या ११ वी. शताब्दी मे आये थे< तो आचार्य वाग्भट ने कैसे मुसलमानो से शिक्षा प्राप्त की?

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